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अब्दुल-बहा का जोर हमेशा कर्मों पर रहा, शब्दों पर नहीं और उन्होंने इस उदाहरण को सबके सामने रखा। एक सच्चे पथ-प्रदर्शक की तरह राह दिखलाते हुए उन्होंने कभी भी अपने अनुयायियों से ऐसा कुछ भी करने के लिये नहीं कहा जिसे उन्होंने पहले स्वयं न कर लिया हो ।
अक्का में अब्दुल-बहा का जीवन, लोगों की भलाई के कार्यों को समर्पित था । वे सुबह बहुत जल्दी उठते, चाय लेते और फिर सेवा कार्यों की शुरूआत कर देते । दिनभर बिना कुछ खाये और बिना आराम किये वे लोगों के कामों में लगे रहते और अक्सर देर शाम तक भी घर नहीं लौट पाते ।
सबसे पहले वे एक बड़े कक्ष में जाते जिसे उन्होंने अपने घर के सामने ही गली के उस पार किराये पर ले रखा था। यहां वे अपने अतिथियों का स्वागत करते । प्रत्येक दिन बड़ी संख्या में लोग अब्दुल-बहा के पास आते और उनसे कोई न कोई मदद मांगते ।
अब्दुल-बहा उन जरूरतमंद लोगों के साथ किसी योग्य व्यक्ति को भेजते, जो अदालत में न्यायाधीश के समक्ष उनका मामला रखता। इस तरह वे सुनिश्चित कर लेते थे कि उन लोगों को न्याय मिले।
महत्वपूर्ण अतिथि भी अक्सर उनसे मिलने आते। जैसे गवर्नर धर्माधिकारी और अदालत के अधिकारी ये लोग या तो अकेले आते या फिर कई लोगों के साथ। अब्दुल-बहा इन्हें जायकेदार कॉफी पिलाते और फिर वे साथ बैठकर ताजा मुद्दों पर विचार विमर्श करते। वे लोग हमेशा अब्दुल-बहा से विस्तार से किसी मुद्दे पर टिप्पणी करने को कहते, उनकी राय जानना चाहते और उनका परामर्श मांगते, क्योंकि वे अब्दुल-बहा की बुद्धिमानी और समझदारी के कायल थे। अदालत का कामकाज खत्म होने के बाद न्यायाधीश हमेशा अब्दुल-बहा से मिलने आ जाते। वे जटिल मुकदमों के बारे में अब्दुल-बहा से चर्चा करते क्योंकि ये जानते थे कि अब्दुल-बहा पूरे न्याय के साथ उन समस्याओं को सुलझा देंगे।
कई बार तो अब्दुल-बहा के पास अपने परिवार से मिलने का भी समय नहीं रहता। किसी न किसी तरह की मदद मांगने वालों की भीड़ हमेशा उन्हें घेरे रहती। बीमार लोगो तो वे नियमित रूप से देखभाल करते। ऐसे लोग जब भी उनसे मिलना चाहते वे उनसे मिलने आ जाते। वो हर दिन किसी न किसी को प्रत्येक रोगी का हाल चाल पूछने भेजते कि क्या उन्हें नींद आई? वे कैसे है? उन्हें कुछ चाहिये तो नहीं? यदि उन्हें दवा या किसी और धीज की जरूरत होती तो वे सुनिश्चित करते कि वह चीज़ उन तक पहुँच जाये। उन्होंने कभी भी किसी के भी प्रति, किसी भी चीज के प्रति लापरवाही नहीं बरती सिवाय अपने आराम और अपने खाने-पीने के
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कभी-कभी कुछ लोग अब्दुल-बहा की सेवाओं के प्रति धन्यवाद व्यक्त करते हुए उनके लिए मिठाइयाँ भेजते लेकिन सारी मिठाइयाँ, फल और केक गली के उस पार अतिथियों के लिए भिजवा दी जाती। अरब के लोग उन्हें "उदारता का स्वामी" कहकर पुकारते थे।
नाऊम नाम की एक निर्धन और अपाहिज महिला हर सप्ताह अब्दुल-बहा के पास कुछ पैसे मांगने आया करती। एक दिन एक आदमी दौड़ता हुआ आया और कहने लगा "मास्टर, नाऊम को खसरा हो गया है, कोई भी उसके पास जाने को तैयार नहीं है, क्या किया जाये?" अब्दुल-बहा ने तुरंत उसकी देखभाल के लिए एक महिला को भेजा, उन्होंने उसके लिए एक कमरा किराये पर लिया, उसमें अपना बिस्तर भिजवाया उसके लिए खाने-पीने की और हर जरूरी चीजें भेजी, डॉक्टर को बुलाया अब्दुल-बहा स्वयं उसकी देखभाल का इंतजाम देखने गये और जब चैन और सुकून में उसकी मृत्यु हुई तो उन्होंने उसे दफनाने का प्रबंध किया और सारा खर्च स्वयं उठाया।
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अमेरिका की एक बहाई लुआ गेट सिंगर अक्का में अब्दुल-बहा के साथ के अपने अनुभवों के बारे में बतलाती है। अब्दुल-बहा से मिलने के लिए वे बंदीनगर की तीर्थयात्रा पर गयीं थी। एक दिन वह अब्दुल-बहा के साथ थीं कि उन्होंने उनसे कहा कि आज उनकी व्यस्तता इतनी ज्यादा है कि वे अपने एक गरीब और बहुत ही बीमार मित्र से मिलने नहीं जा पा रहे हैं, इसलिए उनके बदले लुआ वहाँ चली जाये। उन्होंने कहा :उसके लिए खाना भी ले जाओ और उसकी वैसी ही देखभाल करना जैसी कि मैं करता आ रहा हूँ।" उन्होंने उसे उस आदमी का पता बताया लुआ खुशी-खुशी वहाँ गयी, उन्हें गर्व हुआ कि अब्दुल-बहा ने अपने किसी काम के लिए उनपर विश्वास किया।
लुआ वहीं गयी लेकिन बहुत ही जल्दी लौट भी आईं। उन्होंने हैरत से कहा- "मास्टर निश्चित रूप से आप नहीं जानते कि आपने मुझे कितनी भयानक जगह भेज दिया। वहाँ की बदबू गये कमरे और उस आदमी और उसके घर की हालत देखकर तो मैं बेहोश ही हो गयी थी। इससे पहले कि में किसी भयानक रोग की चपेट में आ जाती मैं वहाँ से भाग आई
अब्दुल-बहा ने बड़ी ही उदासी से उसकी तरफ देखा और एक दृढ़ और सख्त पिता की तरह बोले- यदि तुम ईश्वर की सेवा करना चाहती हो, तो तुम्हे अपने आस-पास के लोगों की सेवा करनी होगी क्योंकि उनमें ही तुम्हें ईश्वर की छवि दिखायी देगी। इसके बाद उन्होंने लुआ को फिर उस आदमी के घर जाने के लिये प्रेरित किया और कहा यदि घर गंदा है तो तुम्हें उसे साफ करना चाहिये और यदि वह आदमी, तुम्हारा भाई साफ नहीं है तो उसे नहलाओ. यदि वह भूखा है तो उसे खाने को दो और तब तक वापस मत लौटो, जब तक ये सारे काम न हो जाये अब्दुल-बहा ने अनेक बार ये काम उसके लिए किये है, क्या तुम एक बार भी नहीं कर सकती?" इस तरह अब्दुल-बहा ने लुआ को लोगों की सेवा करना सिखलाया।
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अक्का में अक्सर ऐसा होता कि अब्दुल-बहा का परिवार जब रात के खाने पर बैठने ही वाला होता तो उन्हें खबर मिलती कि कोई बदनसीब आदमी भूखों मर रहा है। बिना कुछ आगे पूछताछ किये उनका परिवार तुरंत अपना खाना एक छोटी टोकरी में रख कर पैक कर देता और उस भूखे परिवार तक भिजवा देता। ऐसे मौके पर अब्दुल-बहा हंसकर कहते इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता, हमने कल रात खाना खाया था और कल भी खायेंगे।"
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अक्का में अपने कारावास के दौरान अब्दुल-बहा अक्सर अपना बिछौना उन लोगों को दे दिया करते जिनके पास बिस्तर नहीं होता था। वे हमेशा एक से अधिक कोट रखने से इन्कार कर देते। उनका तर्क होता- "मैं दो क्यों रखूं, जबकि दूसरों के पास एक भी नहीं है!"
एक बार अब्दुल-बहा को अक्का के गर्वनर से मिलना था। अब्दुल-बहा की पत्नी को लगा कि उनका पुराना कोट इस महत्वपूर्ण अवसर के लिए ठीक नहीं होगा ये बहुत दिनों से चाह रही थी कि अब्दुल-बहा एक नया कोट ले ले लेकिन कपड़े जब तक साफ सुधरे रहते अब्दुल-बहा का इस ओर ध्यान ही नहीं जाता था कि उन्होंने क्या पहना है? वे परेशान थी कि क्या करें।
अंततः उन्होंने फैसला किया कि वे अब्दुल-बहा के लिए एक नया कोट बनवाएगी और जिस सुबह उन्हें गर्वनर से मिलने जाना होगा, वह पुराने कोट की जगह पर नया कोट रख देंगी। उन्होंने सोचा कि अब्दु-बहा को इस अंतर का पता ही नहीं चलेगा। उन्होंने दर्जी को एक अच्छा और महंगा कोट बनाने का ऑर्डर दे दिया और उस महत्त्वपूर्ण दिन उन्होंने उसे ऐसी जगह रख दिया कि अब्दुल-बहा को आसानी से मिल जाये।
लेकिन जब अब्दुल बहा तैयार होने लगे तो उन्हें लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ है। वे पूरे घर में इधर-उधर अपने कोट की खोज करने लगे। उन्होंने आवाज लगाई- मेरा कोट कहां है? मेरा कोट कहा है? किसी ने उसकी जगह एक कोट रख दिया है, जो मेरा नहीं है।"
उनकी पत्नी ने उन्हें सारी बात समझाने की कोशिश की, लेकिन अब्दुल-बहा जो हमेशा अपने से पहले दूसरों के बारे में सोचते थे, बोले- "लेकिन जरा इस बारे में सोचो, इस कोट की कीमत में तुम वैसे पाच कोट खरीद सकती थी, जैसा मैं आमतौर पर पहना करता हूँ। क्या तुम सोचती हो कि मैं इतना पैसा केवल एक कोट पर खर्च कर सकता है, जिसे केवल मैं पहनूंगा अगर तुम सोचती हो कि मुझे एक नये कोट की जरूरत है, तो ठीक है इसे वापस कर दो और इसकी कीमत में दर्जी से वैसे पांच कोट बनवाने को कह दो, जैसा मैं आमतौर पर पहनता हूँ। इससे न केवल मेरे पास एक नया कोट हो जायेगा बल्कि चार कोट और भी आ जाएंगे जिन्हें मैं औरों को दे सकूँगा।