सन् 1907 में ही अब्दुल-बहा ने अपने परिवार को खाड़ी के इस पार अक्का से हायफा लाना शुरू कर दिया था, जहाँ कार्मल पर्वत के नीचे उन्होंने एक घर का निर्माण करवाया था। सन् 1908 में ओटोमन की राजधानी में युवा तुर्क क्रांति की उथल-पुथल शांत हुई। अपने साम्राज्य के सभी धार्मिक और राजनीतिक कारणों से बनाये गये बंदियों को सुल्तान ने रिहा कर दिया और इस प्रकार दशकों तक निर्वासित बंदी के रूप में रहने के बाद अब्दुल-बहा कैद से मुक्त हुये।
भारी चुनौतियों के बावजूद बाब के लिये एक समाधि के निर्माण का काम चलता रहा, पर्वत के बीच में, जहाँ स्वयं बहाउल्लाह द्वारा स्थान का चुनाव किया गया था। मार्च 1909 में अब्दुल-बहा बाब के अवशेषों को उस समाधि में भूमिस्थ करने में सफल हुये जिसका निर्माण उन्होंने ख़ुद करवाया था।
अगले वर्ष अब्दुल-बहा हायफा से मिस्त्र के लिये रवाना हुये, जहाँ वह एक साल रहे, जिस दौरान वह राजनयिकों, बुद्धिजीवियों, धार्मिक नेताओं और पत्रकारों से मिलते रहे। सन् 1911 के ग्रीष्मकाल के अन्तिम दिनों में, लन्दन जाने के पहले, थाॅनन-लेस-बेन्स के फ्रांसिसी सैरगाह में ठहरते हुये, वह युरोप के लिए रवाना हुये।
अपने जीवन में पहली बार 10 सितम्बर, 1911 को लन्दन के सिटी टेम्पल चर्च के प्रवचन-मंच से अब्दुल-बहा ने एक जनसभा को सम्बोधित किया। इंग्लैण्ड में बाद के एक महीने के प्रवास के दौरान अन्तहीन गतिविधियां चलती रहीं, बहाउल्लाह की शिक्षाओं का प्रसार होता रहा और उन शिक्षाओं को अनेक मुद्दों और समस्याओं के समाधान के लिये उपयोग में लाने पर जनसभाओं, प्रेस-साक्षात्कार तथा व्यक्तिगत रूप से लोगों से साक्षात्कार के माध्यम से वक्तव्य दिये जाते रहे। लंदन और फिर पेरिस में जो प्रतिमान स्थापित किये गये उसे उन्होंने अपनी सभी यात्राओं और सम्भाषणों में अपनाया।
सन 1912 के वसंत में अब्दुल-बहा ने अमेरिका और कनाड़ा की यात्रा नौ महीनों तक की। वह एक देश से दूसरे तक यात्रा कहर प्रकार के श्रोताओं को सम्बोधित किया, हर स्तर के लोगों से मिले वर्ष के अंत में वह ब्रिटेन लौटे और सन् 1913 के आरम्भ में फ्रांस गये, जहाँ से वह जर्मनी, हंगरी और आस्ट्रिया के लिये रवाना हुये, मर्ह महीने में वापस मिस्त्र आये और 5 दिसम्बर 1913 को पवित्र भूमि पहुँचे।
अब्दुल-बहा जैसा वह ’एस. एस. सेल्टिक‘ नामक जहाज पर सवार दिखे, जब वह न्यूयॉर्क सिटी से लिवरपूल, इंग्लैण्ड के लिये रवाना हुये – 5 दिसम्बर 1912
अब्दुल-बहा और उनके सहयात्री पेरिस स्थित आईफल टावर के नीचे, 1912 में
अब्दुल-बहा की पश्चिम की यात्राओं ने बहाउल्लाह की शिक्षाओं को फैलाने और युरोप तथा उत्तरी अमेरिका में बहाई समुदायों की सुदृढ़ स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया। दोनों महाद्वीपों में उनका भव्य स्वागत हुआ, आधुनिक समाज की दशा पर प्रख्यात श्रोतावर्गों ने अपनी चिन्ता व्यक्त की और उनके समाधान पाये, शांति, महिलाओं के अधिकार, नस्लीय समानता, सामाजिक सुधार और आध्यात्मिक विकास जैसे विषयों पर विचार-विमर्श किया।
अपनी यात्राओं के दौरान अब्दुल-बहा का संदेश इस घोषणा के रूप में था कि मानवजाति के एकीकरण का बहुप्रतिज्ञापित युग आ गया है। वह अक्सर सामाजिक परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की आवश्यकता और शांति की स्थापना के लिये आवश्यक अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक दस्तावेजों की बातें किया करते थे। बाद में, दो साल से भी कम समय के अंदर विश्व को घेर लेने वाले युद्ध का उनका पूर्वानुमान वास्तविकता बन गया।